दो शब्द का योग है 'लोक संस्कृति’। यहाँ लोक की अपनी पह्चान एवम् विशेषता है । 'जन' शब्द ऋग्वेद में आया है जहाँ इसका अर्थ 'लोक' से है।
ऋग्वेद के पुरुष सूक्त में एक श्लोक है (3.53.12) जिसमे कहा गया है कि 'विश्वामित्र भारत के लोगों की रक्षा करें।'
लोक संदर्भ में भगवद्गीता में एक श्लोक आया है-
“कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः।
लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि।।3.20।।“
उपर्युक्त श्लोक का अर्थ स्पष्ट करते हुए डॉक्टर राम बाबू 'आर्य' ने अपने एक आलेख में कहा है कि "यहाँ लोक का अर्थ जनसाधारण का आचरण, व्यवहार तथा आदर्श ही है। इस तरह स्पष्ट है कि जो लोक सुसंस्कृत तथा परिष्कृत लोगों के प्रभाव से बाहर रह अपने पुरातन परंपरा की मूल संवेदना संजोये हुए हैं उन्हें लोक कहा जाता है।“(1)
अब ‘संस्कृति’ शब्द पर विचार किया जाय तो 'प्राचीन भारतीय संस्कृति कोश' के अनुसार संस्कृति सामाजिक परम्परा में प्राप्त संस्कार या व्यवहार है।(2)
दूसरे अर्थों में एक लोक का विशिष्ट मानव मूल्य संस्कृति है। वैसे तो मानव मूल्यों का विभाजन अनेक अर्थ में किया गया है लेकिन हमारे विषय के उद्देश्य को देखते हुए हम मानव के 'भौतिक मूल्यों' को ले कर आगे बढ़ेंगे।
मानव के भौतिक आवश्यकतों में आहार सर्वोपरि है वैसे तो आहार का संबंध मैथिल या अन्य भारतीय समाज में मानव के आध्यात्मिक मूल्य से भी है जिस पर थोड़ा बहुत विचार आगे किया जाएगा।
आज हम इस आलेख में मिथिला के लोक आहार पर कुछ विचार करेंगे। वेद पुराण और अन्य भारतीय ग्रंथों में दर्ज सूचनाओं के आधार पर इसमें कोई संदेह नहीं है कि मिथिला का अस्तित्व बहुत प्राचीन है। प्रसिद्ध इतिहासकार राधाकृष्ण चौधरी के 'हिस्ट्री ऑफ मिथिला' अनुसार, यजुर्वेद की रचना मिथिला क्षेत्र में ही हुआ। उनके अनुसार तब मिथिला अन्य क्षेत्रो की तुलना में शांत और सुरक्षित स्थान था इसीलिए यहाँ ना सिर्फ 'यजुर्वेद ' बल्कि अन्य ग्रंथों की भी रचना हुई।(3) प्राचीन ऋषियों में याज्ञवल्क्य ,कपिल,अष्टावक्र,गौतम,जनक सभी का सम्बन्ध प्राचीन मिथिला से ही माना जाता है। 'याज्ञवल्क्य की स्मृति' और 'शतपथ ब्राम्हण' की रचना भी यहीं हुई है ऐसा इतिहसकारों का अनुमान है।
मिथिला अपनी प्राचीनता के साथ-साथ लोक-व्यवहार और अपनी सांस्कृतिक समझ-बुझ के लिए भी प्रख्यात है।
जैसाकि हम इस आलेख के सन्दर्भ में पहले भी कह चुके हैं । यहाँ हम लोक-आहार की बात करेंगे और उसके महत्वों के अन्य सन्दर्भों को भी टटोलने का प्रयास करेंगे।
जैसाकि हम सभी जानते हैं किसी भी क्षेत्र या समुदाय का आहार उनके भौगोलिक परिस्थिति और आध्यात्मिक मान्यताओं पर निर्भर करता है ,और लोक आहारों में अपनी उपस्थिति दर्ज करता है। ऐसा ही कुछ मिथिला में मछलियों ने किया है। यहाँ मछलियों ने ना सिर्फ उपस्थिति दर्ज करवाई है बल्कि यहाँ के सामाजिक खानपान में मछलियों का दबदबा है। यहाँ के लोगों ने इसके आगे दूसरे खाद्यानों को लगभग गौण ही दिया है तभी तो यहाँ एक कहावत प्रचलित है -" मिथिला के भोजन तीन
कदली कब-कब मीन । "
मछली की बात की जाय तो ये मिथिला के सभी संस्कारों में अपने को दर्ज करता आया है। विवाह ,उपनयन ,मुंडन ,द्विरागमन हो या कोई भी भोज-भात,शादी-विवाह या अशुभ कर्म, 'रीति से लेकर जीभ कि चटोरी प्रीत' तक मछली ही मछली है। किसी एक व्यक्ति के सोलह संस्कार कर्म सम्पादित हो या ना हो मछली का हो जाता है। लड़की ससुराल आती है तो पहले मछली ही पकाती है ,दूल्हा जब ससुराल में कुछ नमकीन खाता है तो वह मछली ही खाता है। मछली ना सिर्फ वर्तमान सभ्यता में इतनी प्रख्यात है बल्कि विश्व कि सबसे पुरानी सभ्यता सुमेरियन , इजिप्शन ,मोसोपोटामिआ , बेबीलोनिआ और सैंधव सभ्यता(हड़प्पा, मोहनजोदारो) में भी अपने रुतबे में थी। कहीं जल के देवता के रूप में पूज्य तो कही, इन्स्क्रीप्शन में सहायक।
कहीं किसी के शर्त में आँख फोड़वाते तो कहीं सत्यवती को जनते। लोक कथाओं में कहीं मत्स्य सम्राट तो कहीं रूपवती मत्स्यगंधा के रूप में। मछली ना सिर्फ हिन्दू अपितु बौद्ध और जैन धर्म में भी इतना ही प्रसिद्ध है,और पवित्र भी। अष्टमंगल तत्त्व में मछली भी है। जैन धर्म में वसुंधरा के दाहिने हाथ को मछलियों के साथ चित्रित किया जाता है। वैज्ञानिक शोधों के हिसाब से भी जब दुनियां में कोई जीव नहीं था तब अकशेरुकी मछली ने ही जल को सबसे पहले जूठा किया। जिसकी पुष्टि कहीं ना कहीं भगवान् विष्णुने मत्यवतार लेकर किया। जब उन्होंने बाढ़ से बचाकर सत्यव्रत मनु को सुरक्षित स्थान पर पहुँचा दिया था। (4)
यही कारण है कि महाभारत में मछली को ब्रम्हा और पुराण में विष्णु का दर्जा दिया गया है।(5)
मछली ने प्राचीन से लेकर वर्तमान तक में कितने ही झंडे की शोभा बढ़ाई है तो कितने ही दीवारों के सजाने के काम में लाई गई। 'ब्रम्हांड पुराण में एक जगह कहा गया है कि ललितादेवी और राक्षसों के मध्य लड़ाई में बहुत से ऐसे ध्वज थे जिस पर तरह-तरह के मछलियों के चित्र चित्रित थे (6)
मोहेन-जोदरो की सभ्यता के समय तो सभी देवताओ को मछली में ही देखा जाता था (7)। स्कन्द पुराण की माने तो गंगा जब आई तो मछली भी उनके साथ स्वर्ग से सीधे शिव के जटा में गिरी और पीछे नदियों में(8)। प्राचीन सभ्यता के पशुपति का संबंध भी मछलियों से देखने को मिलता है।
बौद्ध जातक कथाओं में भी रोहू मछली की कहानी देखने को मिलती जहाँ बनारस के राजा पद्मक (बोधिसत्व) अपने लोगों को पाण्डु रोग से बचाने के लिए रोहू मछली बन गए,फिर लोगों ने उन्हें खाया और पाण्डु रोग ठीक हो गया। (जातक ऑफ़ रेड फिश)(9)। क़ुरआन के सुराह 16:14 में कहा गया है कि नदी खाने को मछली देती है। कहने का अर्थ ये है कि विश्व का कोई भी धर्म और काल हो, मछली की सहज उपस्थिति दिख ही जाती है।
वेदकालीन भारत मांसभक्षी था इससे कोई अधिक संशय नहीं है (10)। लेकिन कालांतर में भारत के बहुत से ब्राम्हण सामाज मांस को त्याज्य समझने लगे। ये विचारधारा लोगों के अंदर कब विकसित हुआ नहीं कहा जा सकता! वैसे बहुत विद्वान इसे बौद्ध धर्म से जोड़कर देखते हैं ये किस हद तक सही है नहीं कहा जा सकता है। लेकिन इस सन्दर्भ में कुछ विचारणीय तथ्य है -
"गौतम बुद्ध अहिंसा को मानते थे ज्ञात सूचनाओं के आधार पर बहुत से ऐसे श्रोत है जिससे ये स्पष्ट हो जाता है कि बुद्ध ने कभी शाकाहार को सर्वोपरि नहीं माना। प्रसिद्ध इतिहासकार डी एन झा की पुस्तक "दी मिथ ऑफ़ द होली काऊ" के अनुसार, बुद्ध के समकालीन बौद्ध मठ में भी मांसाहारी लोग थे । बुद्ध ने कहा था कि वो जो जानवर प्राकृतिक रूप से मरे हो उन्हें खाया जा सकता है। बुद्ध धर्म को मानने.के बाद भी अशोक के रसोईघर में जानवर पकाएं जाते थे (11)
खुद गौतम बुद्ध की मृत्यु का कारण सूअर का मांस ही बना था।(12) इन कुछेक बिंदुओं को देखने के बाद, ये तर्क संशय से भरा है कि शाकाहार की मानसिकता बौद्ध का प्रभाव है। बौद्ध धर्म में मांसाहार को मानाने वाले समुदाय भी हैं(थेरवाद)। (13)
मिथिला में मांस भक्षण का इतिहास रहा है वर्तमान में भी लोग अपने आराध्य को बकरे बलि के रूप में देते है और फिर उसका भक्षण करते है।
मांस भक्षण का सन्दर्भ वाल्मीकि रामायण में सहज ही दृष्टिगोचर हो जाता है।
1. सीता हरण के ठीक पहले मारीच को मारने के बाद राम एक और हिरन को मारते हैं और उसका मांस लेकर जन स्थान की ओर जल्दी-जल्दी चलने लगे। संदर्भ के लिए देखें बाल्मीकि रामायण :अरण्य कांड: चालीसवां सर्ग: मारीच वंचना : श्लोक 27 और 28
2.वालि राम द्वारा घायल होने पर उनसे कहता है कि आप क्षत्रिय हैं पंचनख वाले पांच पशु ही आपके खाने योग्य हैं । पंचनख वाले बंदर का मांस तो आप के लिए वर्जित है। वाल्मीकि रामायण: किष्किन्धा काण्ड: सत्रहवां सर्ग: रामाधिक्षेप: श्लोक 33 से 39
3.बाल्मीकि रामायण के उत्तर काण्ड का बयालीसवां सर्ग राम सीता विहार देखा जा सकता है। वहाँ राम स्वयं सीता को नशीला मदिरा पिला रहे हैं जैसे शची को इंद्र पिलाया करते हैं-
सीतामादाय हस्तेन मधु मैरेयकं शुचि।।
पाययामास ककुस्त्थ: शचीमिव पुरंदर:।।18।।
और फिर उनके खाने के लिए सेवक अच्छी तरह पकाए गए मांस और भांति भांति के फल शीघ्र ले आते हैं-
रामास्याभ्यवहारार्थं किंकरास्तूर्तमाहरन्।।19।।
यहाँ ये बातें ध्यान देने योग्य है कि सीता भी मैथिल थीं उन्होंने ना सिर्फ मांस खाया अपितु मछली भी खाई।(14) जब भरत राम से मिलने जंगल जा रहे थे तब निषादराज ने उन्हें मछली ,मीट और मधु खाने के लिए दिया।(15)
रामायण-महाभारत के आलावा बहुत सारे धार्मिक और व्यावहारिक ग्रन्थ है जिसमे मांस के साथ-साथ खाद्य मछलियों को संदर्भित किया गया है। याज्ञवल्क्य से लेकर विद्यापति तक ने इस बात की तरफ इशारा किया है कि मछली मिथिला का आहार है और महत्वपूर्ण आहार है। इसके आलावा अलग-अलग वंशो का अध्ययन किया जाय तो मछली दिख ही जाती है। चाहे रीति में दिखे,ध्वज में दिखे, या भवन की नक्काशियों में। दरभंगा महराज के झंडे में भी मछली मुँह में मुँह जोड़े दिख ही पड़ती है। और तो और मछलियों के नाम पर वैदिक काल में नगर भी हो चुके हैं। महाभारतकालीन भारत में विराट नामक राजा की राजधानी ही "मत्स्य' नाम से थी। चालुक्य वंशीय राजा सोमेश्वर बहुत जानवरों को खाने का शौकीन था लेकिन सूअर और मछली उसके मांसाहार का प्राथमिक और रुचिकर विकल्प था (16)। मौर्य कालीन भारत में भी मछली खाये जाते थे और शासक अपने आनंद के लिए मछलियों का शिकार करते थे। मछुआरे को मछली मारने के प्राप्त मछली का १/६ हिस्सा कर के रूप में देना होता था।(17) हिन्दू ही नहीं जैन अपने प्रारंभिक अवस्था में भी मछली खाते थे(18) और क्यों ना खाएं मिथिला से जो सम्बन्ध था।
वैसे भारत में बहुत से क्षेत्रों में अभी भी ब्राम्हण मछली खाते हैं। यहाँ भी एक नजर डाली जाय तो ब्राम्हणो का मांस भक्षण उनके पारिस्थिकी पर निर्भर करता है जहाँ कश्मीर,उत्तरखंड और हिमाचल के ब्राम्हण बकरे खाते हैं, वहीँ मिथिला और तटवर्ती प्रदेशों के सारस्वत और ओड़िया ब्राम्हणों में मछली, मांसाहार का प्राथमिक विकल्प हैं(क्योकि यहाँ मछली की उपलब्धता सहज है ) । असम में वैष्णव और शक्ति के उपासक भी मांस को प्रसाद के रूप में ग्रहण करते है।(19) कुछ इसी तरह का व्यवहार मैथिलों में भी देखा जाता है। जहाँ नवरात्र में वैष्णव भी दुर्गा को चढ़ाये मांस को,अपने नाक से लगाकर उसका सुगंध लेते हैं।
बिहार की बात करें तो यहाँ शाकाहारियों की संख्या सिर्फ ७% है(20) और कुछ ऐसा ही मिथिला के लिए भी कहा जा सकता है। व्यक्तिगत मेरे विचार से मिथिला में शाकाहारियों की संख्यां ७% से भी कम ही होगी।
और ऐसा कोई ठोस आधार भी नहीं दीखता जिसने मैथिल समाज को मछली ना खाने की कभी सलाह दी हो। वैष्णव धर्म या शाकाहार की भावना के संदर्भ में मैथिली क्षेत्र के प्राचीन ग्रंथकारों ने भी कुछ इशारा भर किया है। चाहे याज्ञवल्क्य हों या मनु ,चरक हों या ज्योतिरीश्वर सभी ने मछलियों को खाद्य की श्रेणी में रखा है।
ज्योतिरीश्वर ने "प्राकृत पैंगलम" में मिथिला के विशिष्ट भोजन सामग्रियों में मछलियों का बहुत ही सरस चित्रण किया है -
"ओग्गर भत्ता रंभअ पत्ता गाइक घित्ता दूध सजुत्ता।
मोइनिमच्छा णालियगच्छा दिज्जइ कंता खा पुणवंता।।
अर्थात केरा के पत्ता पर कर्पूर मञ्जरी,क्षीरोदक,लोहरी प्रभृति पतले चावल का भात,गाय का घी और दूध ,भुन्ना मछली और पटुआ का साग प्रियाके हाथ से पुण्यवान को ही नसीब होता है।
ज्योतिरीश्वर रचित 'धूर्तसमागम' में भी मिथिला के भोजन विन्यास में मछली को व्यक्त किया गया है। और इसी कृति में ये भी कहा गया है- " त्रैलोक्ये भोजनम श्रेष्ठ।। "
मासु माछ बल बडिका साजवि, बथुअन साग परोरे आ ।।
मुदग दितले परकार करब ,सबे संगिनी कहओ थोले आ।।
तहि दिन जनमाओल दधि, सुनु सत्वर सोंध दूध बर घीवे ।।
केरा सांङ्कर सबे जुगुताओब, कविशेखर जोतिक एहु गाबे।।
यहाँ भोजन विन्यास में मांस ,मछली,बल (बड़) बड़ी,बथुआ का साग, परोड़,खेरही दाल(मुद्गल दितले),दही ,सोंध ,घी और शक्कर का उल्लेख किया गया है (21)।
आधुनिक मैथिली साहित्य तो मत्स्य महिमा और उनके गुणगान से भरा हुआ है। और मत्स्य ही ऐसा जलीय प्राणी जिसके ऊपर पुराण की रचना भी की गयी है।
'चरकसंहिता' में मछलियों के साथ-साथ कुल 28 जानवरों के मांस को चिकित्स्कीय प्रक्रिया के लिए उपयोगी बताया गया है वहीँ 'सुश्रुतसंहिता ' में 168 जीवों के मांस को चिकित्स्कीय उपयोग के सन्दर्भ में दर्शया गया है। (22)
'चरक' ने रक्तगुल्म के उपचार के लिए मछली सेवन करने के लिए कहा है (23)
'सुश्रुतसंहिता' में कहा गया है कि -धान्यों में चावल ,जौ,अरहर,मूंग,गेहूं तथा मसूर श्रेष्ठ है। और मांस में
लवा,तित्तिर,सारंगपक्षी,कुरग,कृष्णमृग, कछुआ तथा मछली में कपिजल,मोर तथा वर्मि ये श्रेष्ठ हैं।
(सुश्रुतसंहिता:सूत्रस्थान:अध्याय:46:प्रकीर्णउपदेश:22)
'मनुस्मृति' में कहा गया है कि सुखी मछली नहीं खाना चाहिए (पंचम अध्याय,श्लोक:14) और यही कारण है कि मिथिला में शास्त्रों को मानने वाले लोग सूखा मछली नहीं खाते। मनुस्मृति में जो निम्नलिखित मछलियों को पितर और देवताओं को भोग देने के बाद खाने का विधान है -राजीव, सिंह, तुण्ड,सशल्क, पाठीन, और रोहू। (पंचम अध्याय,श्लोक:१६)।शायद मैथिली समाज मनुस्मृति को ध्यान में रख कर ही श्राद्ध कर्म में पहले पितरों को मछली का पिंड अर्पित करते हैं।
याज्ञवल्क्य के सन्दर्भ में कहा जाता है कि ये मैथिल थे और राजा जनक(?) के आराध्य और गुरु थे। इस तरह इसमें कोई संदेह नहीं कि ये मिथिला कि परिपाटी,लोकव्यवहार और आहार से भिज्ञ रहे होंगे। इन्होने भी कुछ खाद्य मछलियों कि तरफ इशारा किया है।
मनु की तरह याज्ञवल्क्य ने भी सुखी मछली खाने से मना किया है तथा मछली में रोहू और सिंघी को छोड़ पाठीना,राजीव (कमल के रंग सा ) तथा सशल्क(सेहरे वाली )मछली को खाने से मना किया है। (याज्ञवल्क्यस्मृति: भक्ष्याभक्ष्यप्रकरणम:श्लोक 78-78)
ये सभी बातें इस बात की पुष्टि में सहायक है कि मिथिला में मछली का भक्षण अव्यवहारिक या अनैतिक नहीं है,बल्कि शास्त्रसम्मत है। तभी तो आज भी वहां मछली को इतना मंगलकारी माना गया है कि लोग उसे दीवारों पर, लोकचित्रों में ,कुचीकलाओं में भी नहीं छोड़ते। मिथिला कि लोक सज्जा अरिपन में से मछली को निकाल देने पर सब कुछ फीका हो जायेगा। उसे मिथिला पेंटिंग से निकाल दें तो ये विधा ही नीरस हो जाए।
लोग यात्रा से पहले मछली देखने को लालायित रहते है। लोकमान्यता है कि मछली को देखकर की गई यात्रा का परिणाम सुखद होता है और कार्य सिद्ध होने की सम्भावना भी प्रबल हो जाती है।
लोक साहित्य में मछली खाने वाले सीधे स्वर्ग ही जाते हैं मानो उनके लिए गोदान आवश्यक नहीं, या फिर उनके स्वर्ग का रास्ता वैतरणी से नहीं गुजरता। इन सभी बातों के बाद इस विषय पर अगर बल दिया जाय कि मैथिली सभ्यताओं में मछली आई कहाँ से? और समाज के जीभों पर मछली बसी कैसे?लोग मछली के इतने दीवाने क्यों है? तो इसका सम्बद्ध सीधे सिंधुकालीन सभ्यताओं से जुड़ता है!
इसे समझने के लिए हम पहले आर्य सभ्यताओं के हुए अध्ययन और उत्खनन को देखते है-
सिंधु सभ्यता(आर्य सभ्यता) से आर्यों के मिथिला पलायन का सर्वप्रथम साक्ष्य याज्ञवल्क्य रचित शतपथ ब्राम्हण में मिलता है। इस पलायन का समय क्या रहा होगा इसके विषय में कुछ सटीक नहीं कहा जा सकता । ये सम्भवतः याज्ञवल्क्य से पहले रहा हो या उनके समय में!
शतपथ ब्राम्हण में कहा गया है की विदेघ माथव सरस्वती नदी के तीर से अपने पुरोहित वैश्वानर अग्निक का अनुसरण करते हुए सदानीरा(गण्डक) तक आ गए और उसे लाँघ कर अपने लिए वास का निर्माण किया। सरस्वती के लोगों का सदानीरा नदी को पार करना एक बहुत ही ऐतिहासिक घटना थी(24)।
क्यों आये इसके अलग-अलग और कई कारण हो सकते है लेकिन कई अध्ययनों से ऐसा पता चलता है की मिथिला का क्षेत्र कम जंगली था और यहाँ हिंसक जानवर भी कम थे। ये भूमि दलदल थी और तीन तरफ पानी से सुरक्षित भी।
लेकिन मांसभक्षियों का ऐसे स्थान पर आना जहाँ जंगली जानवर कम हो, किस खाद्य संसाधन के भरोसे हो सकता है ?
इसका साधारण उत्तर होगा -जलीय। (वैसे शतपथ ब्राम्हण में कृषि उत्पाद और उत्पादन के संदर्भ भी उपलब्ध हैं )
अभी दूसरा प्रश्न उठता है कि क्या सरस्वती तट के लोग मछली खाते थे ?
उत्तर है हाँ । क्योकि अभी तक हुए अध्ययनों में साफ़ जाहिर हो गया है कि सिंधु सभ्यता के लोग चाहे वो हड़प्पा सभ्यता के हों या मोहन-जोदरो वो मछली खाते थे।(25) न सिर्फ वो मछली खाते थे बल्कि मछली का उपयोग मुहरों ,इंस्क्रिप्शन में भी किया जाता था।
उत्खनन से प्राप्त हड़प्पाकालीन मुहरों में मछलियों वाले मुहर भी मिले हैं(26)।
मोहनजोदरो के उत्खनन से प्राप्त पशुपति के मुहर में ,योग मुद्रा में बैठे शिव के दोनों तरफ मछलियों का चित्र अंकित है। बलूचिस्तान से एक पॉट मिला जिसपर मछली का रंगीन चित्र बना हुआ था (27)। आज भी मिथिला में कोठीपर मछलियों के चित्र बनाये जाते रहे है।
साल 2000 में हड़प्पाकालीन चिन्हित स्थल की खुदाई में SITE BDK -VI से मछली पकड़ने वाली कॉपर हुक मिली C-XIV से जिसकी आयु अनुमानतः 3470 से 3260 वर्ष निर्धारित की गयी। इसी साइट से 1993 में 3830-3640 वर्ष पुरानी कॉपर हुक मिली थी (28)
इस तरह से हम कह सकते हैं कि जो लोग सरस्वती से सदानीरा(सम्भवतः गंडकी नदी) गए वो अपने साथ मछली पकड़ने कि कला,पॉटरी कला, और मछली खाने को लालायित अपनी जीभ लेकर भी गए।
पशुपति का संबंध भी यहाँ नहीं छूटा और मिथिला में भी पशुपति हमेशा के लिए जा बैठे और महादेव रूप में पूजे जाने लगे। और कौलिक शक्ति साधना में शिव ने मांस को भक्ष्य कहा है और शिव तो आराध्य हैं मिथिला में। मिथिला और तंत्र का ऐसा गहरा नाता है जिसके संबंध में जितना भी कहा जाय कम है। बौद्ध धर्म का जो एक प्रभाव मिथिला में पड़ा वो तंत्र के रूप में ही दीखता है।
कुलार्णवतंत्र के अनुसार शिव कुलेश्वर है पार्वती कुलेश्वेरी और यही कुलाचार और कुलमार्ग में दीक्षित कौलिकों के परमाराध्य हैं और कौलमार्ग से उत्तम कोई मार्ग नहीं है। (कुलार्णवतंत्रम -2/18)
कौल धर्म कि मान्यताओं में शिव ने कहा है कि भोग भी योग बन जाता है। तंत्र साधना में मांस और मत्स्य भक्ष्य हैं -
मांस के संदर्भ में शास्त्र में कहा गया है कि -
'मां सनोति हि यत्कर्म तन्मांसं परिकीर्तितं।
न च कायप्रतीकं तु योगिभिर्मांसमुच्यते।।
इसके अनुसार बंधप्रद कर्म हि मांस है इसको ग्रास बनाना चाहिए। मांस का प्रतिनिधि द्रव्य मालपुआ माना जाता है।
मत्स्य के सन्दर्भ में कहा गाय है कि-
गङ्गायमुनयोर्मध्ये द्वौ मत्स्यौ चरतः सदा।
तौ मत्स्यौ भक्षयेद्यस्तु स भवेंमांसभक्षकः।।
मानव शरीर में इड़ा नाड़ी गङ्गा और पिंगला नाड़ी यमुना मानी जाती है। इन्ही दोनों से श्वास-प्रश्वास हमेशा चलते हैं। योगी इन्ही दोनों का भक्षण करते हैं। मत्स्य की आकृति का घृतपक्व अनुकल्प ही मत्स्य का प्रतिनिधि माना जाता है।
बौद्ध तांत्रिक पद्धतिओं में भी रोहू और साकल(साँप सा मुँह वाला )मछली देवी को अर्पित की जाती है तंत्र साधना के पांच मूल प्रक्रियाओं में एक यह भी है (29)।
इस तरह से हम कह सकते है की शास्त्रों ,तंत्रो और मिथिला की भौगोलिक सम्पदा में सहज उपलब्धता के कारण और अन्य आद्यात्मिक रीतियों की वजह से मिथिला में मांसहार की परम्परा प्राचीन परम्परों के समानांतर चलती आ रही है, जिस कारण यहाँ मछली खाने का चलन है। जहाँ तक शाकाहार के चलन का सवाल है इसके सन्दर्भ में कुछ खास नहीं कहा जा सकता। शायद ये 14 शताब्दी के बाद चलन में आया हो ,चैतन्य के भक्ति आंदोलन के बाद या शायद पहले से हो!
* संदर्भ सूची:
1. शोध पत्रिका (मिथिला शोध संस्थान) संपादक-डॉक्टर प्रफुल्ला कुमार सिंह 'मौन' :आलेख:-लोकसंस्कृति अवधारणा और स्वरुप;लेखक-राम बाबू 'आर्य',पकाशक-मिथिला शोध संस्थान, दरभंगा; प्र. व. 2006; पृष्ठ स.-12|
2. प्राचीन भारतीय संस्कृति कोश;संपादक-डॉक्टर हरदेव बाहरी; विद्या प्रकाशन मंदिर,दिल्ली,वर्ष-१९९८,पृष्ठ-406|
3. मिथिलाक इतिहास(हिस्ट्री ऑफ मिथिला),लेखक-राधाकृष्णन चौधरी;प्रकाशक-श्रुति प्रकाशन' दिल्ली, वर्ष-2010,पृष्ठ-233|
4. मत्स्य पुराण :प्रथम अध्याय|
5. दी फिश इन इंडियन फोकलोर एंड द ऑफ़ द अथर्ववेद, लेखक-ए. प. कर्माकर;सोर्स:एनल्स ऑफ़ द भंडारकर ओरिएण्टल रिसर्च इंस्टिट्यूट,1943, Vol. 24, न. 3/4(1943) पृष्ठ- 206 (इ-सोर्स:jstor.org)|
6. दी फिश इन इंडियन फोकलोर एंड द ऐज ऑफ़ द अथर्ववेद, लेखक-ए. प. कर्माकर;सोर्स:एनल्स ऑफ़ द भंडारकर ओरिएण्टल रिसर्च इंस्टिट्यूट,1943, Vol. 24, न. 3/4(1943) पृष्ठ- 194 (इ-सोर्स:jstor.org)|
7.दी फिश इन इंडियन फोकलोर एंड द ऑफ़ द अथर्ववेद, लेखक-ए. प. कर्माकर;सोर्स:एनल्स ऑफ़ द भंडारकर ओरिएण्टल रिसर्च इंस्टिट्यूट,1943, Vol. 24, न. 3/4(1943) पृष्ठ- 191 (इ-सोर्स:jstor.org)|
8. दी फिश इन इंडियन फोकलोर एंड द ऑफ़ द अथर्ववेद, लेखक-ए. प. कर्माकर;सोर्स:एनल्स ऑफ़ द भंडारकर ओरिएण्टल रिसर्च इंस्टिट्यूट,1943, Vol. 24, न. 3/4(1943) (पृष्ठ- 192-193) (इ-सोर्स:jstor.org)|
9.द ट्रीटीज ऑन द ग्रेट वर्चू ऑफ़ विजडम ऑफ़ नागर्जुन , Vol-V, चैप्टर-LIX-LII AND चैप्टर- XX(2ND सीरीज) पृष्ठ-1904|
10.प्राचीन भारत;लेखक-डॉ राधा कुमुद मुखर्जी, प्रकाशक-राजकमल,प्रथम संस्करण-1962, पृष्ठ-8|
11.अशोककालीन शिलालेख-1(धौली स्तम्भ,उड़ीसा)|
12.बुद्ध और बौद्ध धर्म,लेखक-आचार्य चतुरसेन, प्रकाशक-हिंदी साहित्य मण्डल(दिल्ली),वर्ष-1940,पृष्ठ-22|
13. द भिक्खु'ज़ रूल गाइड फॉर लेपीपल थेरवाद बुद्धिज़्म: थेरवाद बुद्धिज़्म मोंक रूल्स,कमपाइल्ड एंड एक्सप्लेन बाय-भिक्खु अरियसको,पब्लिसर-संघलोका फॉरेस्ट हरमिटेज,ऑस्ट्रेलि,1998,पृष्ठ-131|
14. मिथ ऑफ़ द होली काऊ: दी लेटर धर्मेस्टिक ट्रेडिशन एंड बेयोंड, लेखक-डी एन झा, पब्लिकेशन-नवयान पब्लिकेशन,वर्ष-2009,पृष्ठ-97|
15. मिथ ऑफ़ द होली काऊ: दी लेटर धर्मेस्टिक ट्रेडिशन एंड बेयोंड, लेखक-डी एन झा, पब्लिकेशन-नवयान पब्लिकेशन,वर्ष-2009,पृष्ठ-97|
16. मिथ ऑफ़ द होली काऊ: दी लेटर धर्मेस्टिक ट्रेडिशन एंड बेयोंड, लेखक-डी एन झा, पब्लिकेशन-नवयान पब्लिकेशन,वर्ष-2009,पृष्ठ-100|
17. फ़ूड एंड डाइट इन द मौर्यन एम्पायर,लेखक-कृषिवाला,प्रकाशक-मद्रास चैम्बर ऑफ़ एग्रीकल्चर,मद्रास,पृष्ठ-10-11|
18. मिथ ऑफ़ द होली काऊ: दी एक्सक्लूसिव होली काऊ, लेखक-डी एन झा, पब्लिकेशन-नवयान पब्लिकेशन,वर्ष-2009,पृष्ठ-141|
19. आर्टिकल ऑफ़ पुष्पेश पंत(इ-सोर्स- https://www.bbc.com/hindi/india-39380749) 20. Source: Huffingtonpost.in (यूनियन गवर्नमेंट’ज़ सैंपल रजिस्ट्रेशन सिस्टम बेसलाइन सर्वे 2014)
21. मिथिला भोजन सम्बन्धी शब्दावली,लेखक-ललिता झा,प्रकाशक-मिथिला रिसर्च सोसाइटी,दरभंगा,वर्ष-2011, पृष्ठ-61
22.मिथ ऑफ़ द होली काऊ: दी लेटर धर्मेस्टिक ट्रेडिशन एंड बेयोंड, लेखक-डी एन झा, पब्लिकेशन-नवयान पब्लिकेशन,वर्ष-2009,पृष्ठ-97|
23. चरकसंहिता:चिकित्सितस्थान,अध्याय पञ्चम,रक्तगुल्म चिकित्सा।
24. मिथिलाक इतिहास(हिस्ट्री ऑफ मिथिला),लेखक-राधाकृष्णन चौधरी;प्रकाशक-श्रुति प्रकाशन' दिल्ली, वर्ष-2010,पृष्ठ-1&2|
25. फिश सिम्बॉलिस्म एंड फिशिंग इन अन्सिएंट साउथ एशिया,राइटर-विलियम रेयमंड बेल्चर (सोर्स:www.researchgate.net), पृष्ठ-28
26.फिश सिम्बॉलिस्म एंड फिशिंग इन अन्सिएंट साउथ एशिया,राइटर-विलियम रेयमंड बेल्चर (सोर्स:www.researchgate.net), पृष्ठ-33
27. Source:e-www.harappa.com,(Title:-fish and the god of water)
28. वेस्ट कोस्ट ऑफ़ इंडिया:एविडेंस ऑन दी एडवांस फिशिंग टेक्नोलॉजी इन अन्सिएंट इंडिया,राइटर-ए एस गौर एंड सुदर्शन (सोर्स:www.researchgate.net)
29.फिश सिम्बॉलिस्म एंड फिशिंग इन अन्सिएंट साउथ एशिया,राइटर-विलियम रेयमंड बेल्चर (सोर्स:www.researchgate.net), पृष्ठ-28